शनिवार, 10 जुलाई 2010

ढुड.

(लखु उड्यार शैलाश्रय : अल्मोड़ा जनपद में स्थित स्थान जहाँ पाषाण कालीन मनुष्य द्वारा बनाए गए भित्ति चित्र आज भी शिलालेखों के रूप में मौजूद हैं, कहते हैं यहाँ मनुष्य ने गर्मी-बरसात से आश्रय लेते हुए यह चित्र बनाए )
ढुड. जब घन्तर बणनीं
ठुल-ठुल एकना्ली-द्विना्ली लै
सिलाम करनीं उनूकैं
ट्याड़-ट्याड़नैकि कपा्ई फोड़ि 
करि दिनीं सिदि्द,
कूनीं-
झन करिया कुकाम
झन जाया कुबा्ट।
मैंस जब-जब भबरीनीं
ढुंड. है जानीं तिख
बुड़नीं खुटों में
करि दिनीं ल्वेयोव
कि ढ्या्स लागि 
घुर्ये  दिनीं भ्योव
पुजै दिनीं पताव।

मैंस जब जा्नीं भा्ल बा्ट
ढुड. बणि जा्नीं द्याप्त
क्वे ग्वल्ल, क्वे गंगनाथ
क्वे ब्रह्मा, बिश्णु, महेश लै
गाड़ में बगि-बगि बेर 
गंगल्वाड़ बणि जानीं शिवलिंग
भलि अशीक दिनीं
जि मांगौ दि दिनीं।

जांणि कतू काम
मस्याल घैसंण, धान कुटंण, ग्युं पिसंण
गा्ड़-कुड़, इचा्ल-कन्हा्व
कां न ला्गन ढुड.
औंव खून लागि गयौ
घ्यू में छौंकि चाटी जानीं ढुड.।

पर आज 
ढुड.ौकि  के कदर न्है
लत्यायी, जोत्याई 
बुसिल-पितिल समझि
ख्येड़ी-फोड़ी
द्वि-द्वि डबल में गा्ड़-स्या्र खंड़ि
बेची जांणईं ढुड.।

भो यै ढुड.
यं आजा्क बा्टाक रर्वा्ड़
बंणि जा्ल `माइलस्टोन´
ल्येखी जा्ल इनूं पारि
बखता्क कुना्व
शिलालेख बंणि जा्ल यं
सुंई-सुंई बेर ढुनि
छजाई जा्ल संग्रहालयों में
पहरू द्या्ल इनर पहर
डबल लागा्ल इनूकैं द्यखणा्क।

पै कि फैद
मरी पितर भात खवै
जब ज्यून छनै
निकरि इनैरि फिकर
खालि मारि लात।
यस न हओ
तब जांलै 
घ्वेसी-घ्वेसी बेर
यं रेत है जा्ल, मटी जा्ल।

हिन्दी भावानुवाद


पत्थर


पत्थर जब पथराव में प्रयोग किऐ जाते हैं
बड़ी बड़ी बन्दूकें भी
उन्हें सलाम ठोकती हैं
टेढ़े से टेढ़े लोगों को भी सिर फोड़
कर देते हैं सीधा,
कहते हैं-
न करना बुरे काम
न जाना गलत रास्ते।
लोग जब-जब रास्ता भटकते हैं
पत्थर नुकीले हो जाते हैं
चुभते हैं पांवों में
कर देते हैं खून ही खून
या फिर 
धकिया देते हैं पहाड़ियों से
पहुंचा देते हैं पाताल।


लोग जब अच्छे रास्ते जाते हैं
पत्थर देवता बन जाते हैं। 
कोई ग्वल, कोई गंगनाथ 
कोई ब्रहमा, बिष्णु, महेश भी 
नदी में बहते हुऐ
नदी के पत्थर बन जाते हैं शिवलिंग से
अच्छी आशीष- 
जो मांगो, दे देते हैं।


जाने कितने काम
मसाला पीसने, धान कूटने, गेहूं पीसने
खेत, मकान, नींचे-ऊपर
क्हां नहीं लगते पत्थर
आंव-खून लग जाऐ तो
घी में छौंक कर चाटे भी जाते हैं पत्थर।


पर आज 
पत्थरों की कोई कद्र नहीं
ठोकर मारी जा रही उन्हें
कमजोर-बेकार समझते हुऐ
फेंके-तोड़े
बेहद सस्ते में उपजाऊ खेत, चरागाह खोदकर
बेचे जा रहे हैं पत्थर।


कल यही पत्थर
बन जाऐंगे `मील के पत्थर´
लिखी जाऐंगी इन पर 
वक्त की कुण्डलियां
शिलालेख बन जाऐंगे यह
सूंघ-सूंघ कर तलाशे जाऐंगे
सजाऐ जाऐंगे संग्रहालयों में
सैनिक करेंगे इनकी सुरक्षा
पैंसे लगेंगे इनके दर्शनों के।


पर क्या फायदा
दिवंगत पूर्वजों पर 
सर्वस्व न्यौछावर कर भी
जब जीवित रहते 
न की उनकी फिक्र
कहीं ऐसा न हो
तब तक यह 
घिस-घिस कर ही
रेत हो जाऐं, मिट्टी हो जाऐं।

6 टिप्‍पणियां:

  1. बात प्रभावित करती है।
    शुक्रिया।

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  2. Very moving and the combination of hindi and kumaoni made the poem all the more forceful.Thankyou.

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  3. नवीन जी पहले तो सादर प्रणाम. मैं कंचन पटवाल. उत्तरांचल की ही बेटी हूं. गढ़वाल से हूं तो गढ़वाली में ही बात कहूंगी. मिथै आपकु ब्लॉग पढ़िकी बहुत अच्छु लागी. आपथै धन्यवाद कि पहाड़ी शैली थै कि भारत और देश दुनिया सामनै रखना छां. इनी सुंदर रचनाएं लिखना जारी रख्यां.

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  4. धन्यवाद जन दुनिया, महेंद्र मिश्र जी,समय, राजीव जी और कंचन पटवाल जी, आभारी हूँ की आपको यह पोस्ट पसंद आयी. उम्मीद करूंगा के अन्य पोस्ट भी देखेंगे और हमेशा स्नेह बनाए रहेंगे.

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